बंधु
कूल किनारे पर्वत पत्थर वह बहती है
क्षत विक्षत हर क्षण क्षर क्षर होती है पर
किसी तरह सागर में समाना चाहती है
क्यो है अनंत आगार जल खारा
नदी के दुख समेट उसका अंतर रोया
उपर से प्रशांत पर कभी न सो पाया
तिलतिल तपकर भी सरससंदेश लिखता है
श्यामल घटा राग मल्हार में वही सुनाती है
नदी उससे मिलने इसलिये ही दौडती है।
सागर की पीडा और हलचल समझ सके
कौन है वो हवा उसे भली भांति जानती है
सूरज, सावन रंगरेज अनूठे समय का मोल दे
रोशनी, पानी से चुनरियॉ चट्टानें रंगवाती है
हवा गुपचुप गीतों में उन्हे कहानी कहती है
हवाओं की मृदा मीत लहरिये, बांधनी में
झरोखों से झांकते गीतों को ढंक लेती है
बंधु पीडा समेट सागर सी गरिमा जो रख सके
कौन है वो वे भी उसे भली भांति जानती है
हवा सदियों से पावकमाली के स्पंन्दन सुनती है
कास सिवार औढे शिलाऐं उन्हे पर्वत को सुनाती है।